भारतीय संस्कृति में पितृपक्ष का विधान है, जिसमें श्राद्ध कर्म द्वारा उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। सबके मंगल का भाव रखने वाली ऐसी महनीय भारतीय संस्कृति को नमन है।

विश्व ब्रह्मऋषि ब्राह्मण महासभा के पीठाधीश्वर ब्रह्मऋषि विभूति बीके शर्मा हनुमान ने बताया कि  भारतीय संस्कृति धरती के सभी प्राणियों के योगक्षेम की चिंता करती है। इसकी सिद्धि के लिए मानव को साधक बनाकर पंचयज्ञों का विधान किया गया है, जिसमें चेतन ही नहीं जड़ पदार्थों का भी ध्यान रखा गया है। मनुष्य पर जन्म से ही देव, ऋषि, पितृ आदि पाँच ऋणों का भार होता है। पंचयज्ञ इनसे मुक्ति के साधन हैं। इनमें पितृयज्ञ पितृऋण से मुक्ति का उपाय है। 

वेदों ने माता-पिता के आदर, सम्मान एवं सेवा के लिए मातृदेवो भव, पितृदेवो भव का उद्घोष किया है। इसी भावना की सिद्धि हेतु भारतीय संस्कृति में पितृपक्ष का विधान है, जिसमें श्राद्ध कर्म द्वारा उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। श्रद्धा भाव प्रमुख होने से इसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा से समर्पित भोगों को पूर्वज भाव रूप में ग्रहण करते हैं।

स्थूल के समान सूक्ष्म जगत भी सत्य है, जिसे भाव जगत भी कहा जाता हैं। माता-पिता एवं गुरु स्थूल शरीर के न रहने पर भी सूक्ष्म शरीर से हमेशा जीवित रहते हैं। उनका मार्गदर्शन संबल बनकर सदा हमारे साथ रहता है। अतः उनकी संतृप्ति के लिए तर्पण एवं दान आदि के द्वारा पितृयज्ञ संपादित करने का विधान है। स्वार्थपूर्ण भोगवादी संस्कृति में जीने वाले लोग भले ही श्राद्धकर्म में विश्वास न करते हों, किंतु दूरद्रष्टा भारतीय ऋषियों का चिंतन व्यापक होने से परार्थपरक है। इस प्रयोजन में दान आदि क्रियाओं से जल, थल और नभ में रहने वाले जीवों की आत्मा भी तृप्त हो जाती है।

पितृयज्ञ का मूल उद्देश्य पूर्वजों के प्रति श्रद्धा तथा सबके अंतर्मन में दीन-दुखियों के प्रति दया भाव जागृत करना है। भारतीय संस्कृति का यह अनूठा भाव दुनिया के लिए अनुकरणीय है। इसके माध्यम से सनातन संस्कृति के लोग अपने मृत पूर्वजों को भी जलांजलि देते हैं। पितृपक्ष, वस्तुतः वर्तमान को अतीत से जोड़ने वाली एक ऐसी कड़ी है, जो हमें अपनी जड़ों से भी जोड़े रखती है। सबके मंगल का भाव रखने वाली ऐसी महनीय भारतीय संस्कृति को नमन है।



Share To:

Post A Comment: