नई दिल्ली : पुनीत माथुर। ’शख़्सियत’ में हम आज आपका परिचय करवा रहे हैं बहुमुखी प्रतिभा की धनी शालिनी ओझा जी से। मूलतः आरा (बिहार) की रहने वाली शालिनी जी ने विवाह से पहले अपने गृह नगर आरा में ही एक लंबे समय तक शिक्षिका के रूप में अध्यापन कार्य किया।
शालिनी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा आरा से ही प्राप्त की। आपने वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी, आरा से संस्कृत में एम.ए. करने के उपरांत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, पटना से बीएड किया। पेंटिंग और स्केचिंग में रुझान के चलते शालनी जी ने कला एवं शिल्प महाविद्यालय से पांच वर्षीय बी.एफ.ए.( फाइन आर्ट्स) कोर्स भी किया है।
बचपन से ही शालिनी जी को कविताएं लिखने का शौक रहा। दसवीं कक्षा से ही उनकी कविताएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं।
विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों में व्यस्त हो कर शालिनी जी लेखन से दूर रहीं। अभी कुछ वर्षों से ही उन्होंने पुनः साहित्य सृजन प्रारंभ किया है और बहुत जल्दी एक लोकप्रिय लेखिका और कवयित्री के रूप में साहित्य जगत में अपनी पहचान बना ली है। शालिनी जी का सांझा संकलन ’काव्योधानम’ पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया है।
आइए आनंद लेते हैं उनकी कुछ रचनाओं का....
कविता : मैं प्रीत बुनती हूं
छोटी-छोटी बातों में खुश होती हूं
प्रेम का ढाई आखर मैं पढ़ती हूं
इधर-उधर भटकती नहीं तलाश में
खुद के अंदर ही इसको ढूंढती हूं।
हां मैं प्रीत बुनती हूं....
बुजुर्गों की बातें ध्यान से सुनती हूं
फिर मैं उसको तो गुनती हूं
देते जब आशीष तृप्त होती हूं मैं
उन दुआओं को आंचल में समेट लेती हूं।
हां मैं प्रीत बुनती हूं....
दुखी हो जाती हूं गम दूसरों का देख कर
संभव जितना हो कष्ट उनका हर लेती हूं
संतुष्टि मिलती है अजीब सी
जिसके कारण पुलकित में होती हूं।
हां मैं प्रीत बुनती हूं...
नहीं भाती है मुझको
ऋणात्मक हो गर चित्तवृत्ति
दूर कर उसे भावात्मक
बनाने की कोशिश करती हूं।
हां मैं प्रीत बुनती हूं...
कविता : दिवास्वप्न सम हो तुम
धवल निशा तड़पाती है
बस तेरी ही याद आती है
माना हमारी तुम्हारी बात नहीं होती
पर बात न होने से याद कम नहीं होती है....
मेले में या तन्हाई में
धूप में या अमराई में
कैसे भूलू यादों को
यादों को मुलाकातों को।
कितनी भी मैं व्यस्त रहूं
दिल, दिमाग की गलियों में
तुम फेरा डाला करते हो
सोचूं मैं कैसे कटे बिन तेरे ये जीवन
कांपे आत्मा व्यथित होता है ये मन
सच कहूं अपनी इप्सा कर दमन
जिंदगी जीती हूं बेमन
तू कहे और मैं बस सुनती रहूं
देखें मुझे तू और मैं तृप्त होती रहूं
गैरों से भरी महफिल में
बस एक अपने से लगते हो तुम
दिल की धड़कन, रूह बन बैठे हो मेरे
पर क्या करूं दिवास्वप्न सम हो तुम।
कविता : पुरुष
पुरुषों पर बहुत कम है लिखा गया
शायद इसके लिए उन्हें कम गुना गया
हर सिक्के के होते दो पहलू
एक पहलू आपके सामने रखा गया।
इन्हें कठोर , पाषाण ह्रदय आदि
अलंकारों से अलंकृत किया गया
भाव हीन कर लिया भले आनन को..
पर मुख से उफ्फ न किया।
भले ही समाज में प्राथमिकता
मिली हुई है पुरुषों को
पर अपमान का हलाहल
देखो इन्होंने ही पिया।
झगड़े होते गर भाई बहन के
भाई ही डांट खाता है
मां बाबा की हुई लड़ाई
पापा को चुप रहना आता है।
भले ही गलती लड़की की हो
पर सरेआम पीटा लड़का जाता है
बिना गलती के भी गलत है होता
रहता है इसी खौफ में बेखौफ खुद को बताता है।
बचपन से इस डर में जीता
कारोबार आगे मुझे ही बढ़ाना है
ना अगर कुछ कर पाया तो
नकारा ही समझा जाना है।
जानवरों सा खटता परिवार की चिंता कर
परेशानियां आए गर मैं हूं ना कह ढाढस बंधाता है
फलता फूलता परिवार छांव में इसके
खुद तपता रहता पर चेहरे से मुस्काता है।
सीमा पर तैनात है होता
छाती पर गोली खाता है
सर्वस्व समर्पण कर देता युद्ध क्षेत्र में
भारत का सपूत कहलाता है।
कविता : एक उम्र के बाद
सभी के साथ ऐसा ही होता है
बच्चों की बेहतरी के लिए
इंसा अपने बेहतरीन पल खोता है
और फिर मां-बाप अकेले हो जाते
एक उम्र के बाद...
तन्हा तन्हा बीत रही है
जिंदगी यूं रीत रही है
फूल खिले थे जिस आंगन में
बस उनकी सुवास रही है।
फिर आएंगे इसी आंगन में
सोच सोच खुश होती है
साल दो साल में कुछ दिन के लिए
उनके आने पर हीं खुश हो लेती है।
कभी सजाती आंगन
तो कमरा कभी सजाती है
बच्चों को क्या अच्छा लगता
सोचकर बड़ी, पापड़, आचार बनाती है।
मां तेरे हाथों का खाकर
मन तृप्त हो जाता है
सुनकर बच्चों के मुख से ये
मां का मन हर्षाता है।
नाती, पोते को ना भाती
ये पापड़ और बड़ियां
वह तो बस खोजें है
मैगी , पास्ता और कचौरियां।
कभी लाड लड़ाती बच्चों से
कभी प्यार से समझाती है
लाल मेरे ज्यादा नहीं खाते यह
इससे बस बर्बादी है।
बीत जाते हैं वह पल छिन
जो साल दो साल में एक बार आते हैं
फिर से खाली हो जाता घर आंगन
छा जाती उदासी है।
मन को सांत्वना है देती
खुद ही खुद को समझाती है
फिर आएंगे लाल मेरे
यह सोच सोच मुस्काती है।
कविता : मैं अख़बार होती
काश मैं अखबार होती
ना फिर मै बेजार होती
सुबह सवेरे ही तुमको
मेरी भी दरकार होती।
काश मैं अखबार होती...
जिसे देखते बड़े ध्यान से
नजरे ना हटा पाते
चाहे दुनिया इधर उधर हो जाए
संग तेरे अभिसार होती।
काश में अखबार होती।
जाड़ा गर्मी या बरसात
बेकल रहते दिन हो या रात
जब तलक आऊ ना मैं हाथ
तुम्हारी ये बेचैनी स्वीकार करती।
काश मैं अखबार होती..
चुस्कियां लेते चाय की
पढ़ते जबकि तुम मुझे
भीग के बारिश में धुंधली पड़ जाती
यही मैं प्रतिकार करती।
काश मैं अखबार होती...
और अंत में शालिनी जी के स्वर में उनकी एक और सुंदर रचना...
Post A Comment: