नई दिल्ली : पुनीत माथुर। ’शख़्सियत’ में हम आज आपका परिचय करवा रहे हैं बहुमुखी प्रतिभा की धनी साधना भगत जी से। मूलतः भागलपुर (बिहार) की रहने वाली साधना जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भागलपुर से ही प्राप्त की। सुंदरवती महिला महाविद्यालय, भागलपुर से उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।
विवाह के बाद से साधना जी खगड़िया (बिहार) में 28 वर्षों से रह कर साहित्य सृजन के साथ साथ समाजसेवा में लगी हुई हैं।
साधना जी एक लोकप्रिय लेखिका, कवयित्री व गायिका हैं।
इसके साथ ही साथ उन्हे भिन्न-भिन्न प्रकार के कलात्मक कार्यों में रुचि है जैसे सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, बागवानी।
साधना जी विभिन्न सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़ी रही हैं। हाल ही में इनके सक्रिय योगदान से अखिल भारतीय साहित्य सृजन मंच, खगड़िया के प्रथम महाधिवेशन का अत्यधिक सफल आयोजन संपन्न हुआ है।
आइए आनंद लेते हैं साधना जी की पांच उत्कृष्ट रचनाओं का...
’वही तो मैं हूं’
वही तो मैं हूं
जो दरिया में उतर रही है गगन से आकर...
जो नदियां से भी करती है प्रेम टूट कर...
जो पर्वतों पर बिखेर रही है सफेद चादर,
’वही तो मैं हूं’
स्वयं के भूगोल गणित को तोल कर...
अपने मन की गांठ को स्वयं खोल कर...
रिश्ते के कुरुक्षेत्र में खुद को झुलसाती,
’वही तो मैं हूं’
आराधना तुम्हारी करती हूं देवता बनाकर,
’तुम और तुम्हारा आका होना’
यूं तो...हो बेहद शालीन, बुद्धिजीवी,
संपूर्ण–स्त्री अस्मिता के पक्षधर तुम!!
पर...मेरी उन्मुक्त उड़ान से डर से जाते हो तुम,
फिर भी, निर्ममता से ठुकराई जाती हूं बिखरकर,
नियति से लड़ती हूं बेगानी बनकर,
प्रकृति की पीठ बनी रही सदियों से,
’वही तो मैं हूं’
मैं सृजन करती हूं!
नए युग का नव निर्माण बनकर,
आती जाती सांसों की आखरी मियाद तक,
जैसे...
रजोनिवृत्ति के आखिरी मियाद में,
जन्म देती हूं एक शिशु...
’वही तो मैं हूं’
नही सुहाता तुम्हें मेरा आगे बढ़ना, चुनौती देना,
मेरा अचानक दिशा बदलना।
नही ढल पाती तुम्हारे सांचे में मैं
एक शर्मीली शांत लड़की!
टंगी मिलती है सभ्य समाज की,
जर्जर दीवार की खूंटी पर...
आक्रांत से घिर जाती है जब,
झटक देती है सारे बंधन...
असीमित नियमों के साथ,
दूर उतार फेंकती है...
आरोप–प्रत्यारोप के पुराने वस्त्र।
एक शर्मीली शांत लड़की!!
जफर की तलाश में !
निकलती घर से बाहर....
चरित्र के उपदेश टांगे जाते हैं,
सड़े गले कुछ नियम के साथ...
सह नहीं पाती है पीड़ा के
चारित्रिक आघात...
कोरी पवित्रता के भी,
सफेद चादर पर प्रमाण देती है।
एक शर्मीली शांत लड़की!!
उलझ जाती है उलझनों में,
आंखों में अंगारें, उमस लिए....
जुबां से ज्वाला की वर्षा करती है!
मानो भूगर्भ फटने वाला ही हो,
अपने लावा में बिखेर देगी....
सारे संसार को,
राख के अवशेष में...
बेटी की फ्रॉक
सिलते सिलते ।
भूल जाती है मां...
लोगों के मुंह सिलने ।
चुपके से टांक देती है...
जफर के बटन हर रोज़
’नंदनी’ के रंग बिरंगे फ्रॉक में।
दांतों से काट देती है,
कुदृष्टि के काले धागे।
समाज के साथ –साथ,
पूरे कायनात से टकराती है।
आंच नहीं आने देती मां
अपनी आत्मजा पर...
उड़ान के पंख के साथ...
खुला आसमान भी देती है
वो विद्रोह के नुकीले कील,
टांक लेती है बड़े से जूड़े में...
चली जाती है रसोई में...
चूल्हे पर चढ़ा देती है कुरीतियां
बुनती है ताना बाना,
आने वाले सुनहरे भविष्य का...
और पका देती है स्वादिष्ट सा व्यंजन।
और फिर से विलुप्त हो जाता है
नारी जागृति का भाव
पुरुष समाज से जद्दोजहद करने में।
*जफर - सफलता
घायल पैरों से
अनुज देवर की शादी
की जद्दोजहद में
प्यार से मेरी ओर देखना!
इंतज़ार है,
अपने अबोध को
सुलाती, खिलाती
कपड़े को मशीन
मै डालती, धोती
बर्तन के ढेर को
साफ़ करती,
तुम्हारे टिफिन
में खाना रखती
प्यार से मेरी ओर देखना!
इंतज़ार है,
आंखों की नमी को
काजल से छुपाती,
तानों की चोट से
घायल मन को
पुराने फिल्मी गाने
गुनगुनाती, मुस्कुराती,
भारी हुए सिर में
बाम लगती
प्यार से, मेरी ओर देखना!
इंतज़ार है।
’हरियाली’
हरियाली तरूणी हृदय,
खड़ी बागों के बीच ।
सखी के संग साधना,
मन चितवन लेती सींच ।
यह सब उसकी लीला है,
कोई हरा कोई पीला है ।
साथी का हो साथ अगर,
मौसम बड़ा रंगीला है ।
सुंदर बहुत गुलाबी फूल,
रक्षक शाख कंटीला है ।
कुदरत के हाथों का हुनर,
उपवन साज-सजीला है ।
आसमान ऊपर वाले का,
अपनी तो बस लीला है ।
ओ री सखी तू ना जाना,
मौसम बड़ा छबीला है ।
साधना का फल मिलता,
मधुमय बड़ा रसीला है ।
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