नई दिल्ली : पुनीत माथुर। देश में एक के बाद एक जिस तरह महिलाओं के साथ क्रूरता, निर्दयता और मानवीय गरिमा को रौंदने की घटनाएं हो रही हैं, उससे तो अब यह सवाल उठ रहा है कि आखिर पैशाचिकता की इंतिहा किसे कहें? ऐसा हर नया राक्षसी कृत्य पहले से ज्यादा शर्मनाक और मानव सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। ऐसा नहीं कि इस तरह की घटनाएं पहले नहीं हुईं, लेकिन जिस तेजी से इसकी आवृत्ति बढ़ी है, वह हमारी समूची सोच और संस्कृति को ही कठघरे में खड़ा करने वाली है। इनमें भी मणिपुर में हुई बेहद शर्मनाक घटना ने पूरे देश का सिर नीचा किया है।
इस घटना से आक्रोशित दो युवा कवयित्रियों की रचनाएं हमें सोचने पर विवश करती हैं।
पहली रचना सीतामढ़ी (बिहार) की प्रियंका झा जी की है...
क्यों हुआ द्रौपदी का चीरहरण ?
उठ दासी चल सभागार में...वक्त तेरा अब हुआ पूरा,
रक्षक सभी हुए भक्षक...सब रूप तेरा हुआ कूड़ा ।।
नहीं है महलों की रानी तू ...अब तेरा कोई यहां नहीं,
अब सहने की आदत डाल ले जो दुःख तूने सहा नहीं।।
खुद को हारे महाराज युधिष्ठिर और भाई भी सब हारे,
और धूर्त की अंतिम बाज़ी में...अफ़सोस वो तुझे हारे।।
महाराज तेरे अब दुर्योधन उनकी इक दासी अब है तू
दुस्साशन को क्रोध दिला...कैसे अब बच सकती है तू।।
भीष्म पितामह जैसे...वीर नीति निपुण धर्म विदुर,
द्रोणाचार्य सम अतुलित योद्धा क्या कर लेगा कपटी ससुर ।।
पा संत्रास द्रौपदी द्वारा...दुस्साशन का क्रोध बढ़ा,
पकड़े केश द्रौपदी के...रह न सका वह नीच खड़ा ।।
पहुंचा लेकर राज्यसभा में...दरबारी सब विस्मित थे,
कैसा ये अनाचार हो रहा सब हतप्रभ सब विचलित थे ।।
रूदन करती अबला नारी...क्यों कायर सब पुरुष हुए,
क्यों इतने हृदय विहीन हो कहां न्यायिक सत्पुरुष गए।।
सबकी आंखों पर बेशर्मी का ये कैसा पर्दा झूल रहा,
कहां खो गया धर्मज्ञान...मणिपुर कैसे फिर जल रहा।।
बैठे सब मूक पाषाण बने जैसे धरती पे दुर्गा नाम नहीं,
था रक्त दौड़ता नसों में केवल मुर्दा शरीर में प्राण नहीं ।।
क्यों गई मति तेरी मारी मानवता को शर्मसार किया,
क्यों अपनी बहु बेटियों को अंतिम बाज़ी में हार गया ।।
दूसरी रचना हिंदी ग़ज़ल है जिसे लिखा है मेरठ की ऋतु अग्रवाल जी ने...
थी कभी इतनी नहीं कमज़ोर माता द्रौपदी,
खींच कोई दुष्ट ले तन छोर माता द्रौपदी।
दाँव पर अस्मत हमेशा औरतों की क्यों लगे,
नाद करती क्यों नहीं पुरजोर माता द्रौपदी।
पाप में डूबी है दुनिया है अँधेरी हर गली,
दीप साहस का जला हो भोर माता द्रौपदी।
हाथ तेरी लाज तक कैसे पहुँच उसका गया,
खोद दे तू आज उसकी गोर माता द्रौपदी।
भीड़ सारी चुप तमाशा देखती है आज भी,
लोभ में सत्ता गड़ी है खोर माता द्रौपदी।
रौंदता है अंग जिससे जन्म माँ देती उसे,
कोख का अपमान करता घोर माता द्रौपदी।
हाल ये ही "ऋतु" रहा तो देख लेना एक दिन,
इस धरा का मिट रहेगा छोर माता द्रौपदी।
* गोर- कब्र
* खोर- संकरी गली
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