नई दिल्ली : पुनीत माथुर। आज न्यूज़ लाइव टुडे के ’शख़्सियत’ में हम आपका परिचय करवा रहे है लोकप्रिय कवयित्री अनीता प्रसाद जी से। अनिता जी 22 वर्षों से पटना (बिहार) स्थित डी.ए.वी. विद्यालय में अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र एवं इतिहास में एम.ए., बी.एड. और एम.बी.ए. किया हुआ है।

आकाशवाणी में उद्घोषिका के रूप में कार्य करने के साथ ही साथ दूरदर्शन में विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन किया है।

साहित्यिक के क्षेत्र में अनीता जी की उपलब्धियों की बात करें तो उनकी कविताओं को साप्ताहिक हिन्दुस्तान में मृणाल पांडे जी द्वारा स्वीकृति मिली है। ’आत्मकथा’ नामक स्थानीय समाचार पत्र(दरभंगा-बिहार) में  कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं, पटना विश्वविद्यालय की पत्रिका ’ज्योत्सना’ में 90 के दशक में अकसर कविताओं का प्रकाशन हुआ।

आकाशवाणी और दूरदर्शन पर विभिन्न कार्यक्रमों में वे कविता पाठ करती रही हैं।

’मानवाधिकार टुडे’ में कविता के प्रकाशन एवं  'श्रेष्ठ रचनाकार' का सम्मान उन्हे मिला है। इसके अतिरिक्त अनीता जी वैशाली जिला साहित्य सम्मेलन द्वारा संचालित फेसबुक पेज एवं अन्य साहित्यिक समूहों पर ऑन लाइन काव्य पाठ करती रहती हैं।

आइए अनीता जी रचनाओं का आनंद लें...



’तेरे कौली, अंकोरी में’ 

मेरे अंतर्मन के साथ-साथ 

निश्चयात्मक वृत्ति में भी

अर्णव तुम हो 

अच्युत (अटल)श्री कृष्ण समान

गोपी नदियाँ मतवाली हैं

तेरे कौली, अंकोरी (वक्षस्थल) में

परिपूरित हो अविकल्प (अशेष) बने...

हे अर्णव, 

पीकर गरल विश्व का

बन जाते हो नीलकण्ठ 

अज की इस सृष्टि रचना में 

तन्मयता से देते

अतुल्य अवदान  अपना

और

अपने उर्मियों (लहरें) की 

करतल ध्वनि से 

प्रगट कर देते आभार भी  तुम...

कैसे कर लेते आत्मसात 

जग के गुण अवगुण भी तुम

आकाश-पाताल, सलिल-पाषाण

जल-थल, कृशानु (अग्नि)और प्रभंजन (हवा)  

सबकी पहचान तुम्ही से है

बन जाते कैसे भावसंयमी

कैसे ना विचलित होते तुम...

ये जगत है मिथ्या,

रूप सत्य पर तेरा ही है

विशाल तुम्हारे वक्षस्थल पर 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विस्तार में है!

मानव के ये मुष्टि प्रहार,

ये मरघट मलबा कबाड़ भंगार

ये मूढ़ कहाँ जानें-मानें??

'प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः'...


एक ग़ज़ल...’आइना भी आज झूठा हो गया’

हर तरफ अब युं मैं रुसवा हो गया,

बेवफा पे दिल दिवाना हो गया।


मन मिरा सावन में भी सूखा रहा,

याद में अंगीठियों सा हो गया।


उम्र भर मैं ढूंढता खुशियां रहा,

रेत में पानी का धोखा हो गया।


आज दहशत क्यों है फैली शाख पर,

बिखरे हुए पंखों से शुब्हा हो गया।


जाने कितने ग़म संभाले थे कभी, 

ख़त लिखे अब एक जमाना हो गया।


मन मिरा जब भी अकेला सा हुआ ,

ख़त पुराना मीत मेरा हो गया।


एक मुकम्मल ज़िन्दगी ना बन सकी,

कुछ उजागर कुछ ढका सा हो गया।


कविता... ’अधूरे अरमान पर मुकम्मल वज़ूद’ 

ज़िंदगी, 

खुशियों के झरोखे से 

जब भी तुम्हें देखती हूँ 

तुम मुकम्मल नहीं दिखती 

कहीं कोई कसक सी रह ही जाती है

जैसे एक एहसास- अधूरा सा...

वक्त की गोद में पड़ती दरारों से 

कुछ बाकी बचे अधूरे सपनों की तरह 

नाजुक, कोमल सी कोंपले 

आ ही जाती है एक एहसास के रूप में 

जैसे एक खुशी- अधूरी सी...

मुकम्मल होने की आस 

फिर से जी उठती है जिंदगी 

पर पानी के बुलबुले ही साबित होती है 

जब किसी के निवाले का ग्रास बन जाती है 

ये कोंपले ,

जो सिसक भी नहीं पाती 

जैसे एक अरमान-अधूरा सा...

इस अधूरेपन में भी 

तुम मुकम्मल ही हो जिंदगी 

मुझे प्रेरित करती ही रहती हो बार-बार 

उस पूर्णता के लिए 

जो इन अधूरे एहसासों की नाजुक 

जकड़न से आजाद हो 

और इन अधूरे एहसासों की 

पूर्णता को स्वीकार कर 

एक पुरदुरुस्त, 

संपूर्ण अस्तित्व का आभास दे...


ग़ज़ल...

चल खुशियों को बांटा जाए, 

ग़म को यूं भरमाया जाए। 


जीवन ताल यूं छेड़ा जाए,

रंग खुशी का घोला जाए। 


छलनी है ये दिल सीने में

कैसे उन्हें बहलाया जाए।


मचल रहा है मौसम देखो,

दिल थोड़ा बहकाया जाए। 


झूमें महुआ मदहोश हवा,

सांसों को महकाया जाए।


मंदिर मस्जिद में ना पाया, 

दिल में क्यों ना ढूंढा जाए।


दुख में तो आकंठ है जीवन, 

रब के द्वारे जाया जाए।


जीवन ग़र सुलझाना है तो,

पीछे मुड़ कर देखा जाए।


जीवन इक वरदान ’अनू' ये, 

आंसू आंख से पोंछा जाए।


एक अन्य रचना...’पीछे मुड़कर देखा तो’

कई बार उम्र की दहलीज 

तक पहुंचते-पहुंचते हम,

एक अनजान से जीवन पथ पर 

खुद को खड़ा पाते हैं!

जो हमारा जाना पहचाना सा पथ तो 

हरगिज नहीं....


लड़खड़ाते हुए चलने की कोशिश में 

हम आदतन, 

खुद से उलझ जाते हैं, 

कि अपनी रवानगी में बहते हुए 

ये किस मंजिल की ओर बढ़ चले ?


ये हमारा रास्ता तो नहीं,

एक नई राह है! 

ऊबड़-खाबड़, ऊसर-बंजर!

पर 

अपनी कमजोर कदमों के सहारे भी

आगे बढ़ना है.....

 

ना कोई स्तंभ है,

ना कोई पड़ाव!

आख़िरी मंजिल है 

और आगे बढ़ना ही है .....


चिंतन का विषय ये है

कि कौन है जिम्मेदार इसके लिए?

वो, 

जिसे हम पीछे छोड़ आए! 

या वो 

जो हमें छोड़ कर चले गए........ 


दोनों ही सूरतों में 

जिम्मेदार शायद हम खुद ही हैं!

शायद हमारी रवानगी! 

शायद हमारी अदूरदर्शिता.... 


जब हम बढ़ा रहे थे अपने क़दम 

तो हमने भी पीछे मुड़कर देखना 

गवारा ना किया!

जो छोड़कर जा रहे थे 

उन्हें दिल से पुकारा न गया.... 


हम सब एक जटिल,

पेचीदगी भरे

जीवन पथ का निर्माण करते रहें

अबतक!

इस बात का एहसास 

कैसे और कब करेंगे हम......


जब पीछे मुड़कर देखने का समय आया 

तब उलझे हुए धागे का 

छोर ढूंढने के बजाय 

शक ओ शुब्हा की

कैंचियां लिए बैठे हैं हम.....


छोड़ो ना आराम!!

बूढ़ी हड्डियों को 

अब तो गलना ही है!

क्यों ना लड़खड़ाते पैरों पर 

खड़े होकर, 

अपने अनुभवों का 

आशीर्वाद भरा हाथ, 

जटिलता को सरलता में 

बदलने के लिए उठाएं!!

एकबार फिर,

पीछे मुड़कर देखने के लिए

नज़रें उठाएं .........


अनीता प्रसाद

स्वरचित मौलिक रचना 


कोई भी और

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