भारत विभिन्न धर्मों के लोगों का देश है, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना यहां सभी का कर्तव्य है।
उर्दू साहित्य के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि उर्दू साहित्य की कई विधाएं हैं, हर विधा में राष्ट्रीय एकता की छाप बहुत प्रमुख है बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि उर्दू भाषा हमेशा से ही अग्रणी रही है। प्रेम और स्नेह की इस भाषा की मधुरता और गत्यात्मकता में लोगों को अपनी और आकर्षित करने की अपार क्षमता है। उर्दू साहित्य का अधिकांश प्रारम्भिक सरमाया कविताएँ हैं। उर्दू शायरी में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में सूफियों, संतों और फकीरों की अहम भूमिका रही है. जिन्होंने अपने उपदेशों और प्रार्थना गीतों के माध्यम से प्रेम, मित्रता, सच्चाई और राष्ट्रीय एकता की शिक्षा दी है। भारत की यह विशेषता रही है कि यहां सभी धर्मों के अनुयायी धर्म और राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना एक-दूसरे के साथ सद्भाव से रहते हैं भारतीय संविधान ने भी सबके साथ समान व्यवहार किया है। आजादी के बाद से अब तक जितनी भी सरकारें बनी है, उन्होंने अपनी जनता के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया है। जब भी विकास की बात हुई है, कानून के दायरे में रहकर ही सबका विकास हुआ है, वर्तमान सरकार ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया और सबका साथ, सब का विकास का नारा दिया और इसके तहत उसने सभी देशवासियों का विश्वास जीतने की कोशिश की और एक कदम आगे बढ़ते हुए देश के विकास में सबका सहयोग चाहा। क्योंकि जब तक जनता की इच्छा नहीं होगी तब तक देश में राष्ट्रीय एकता नहीं हो सकती और जब तक एकता नहीं होगी तब तक विकास नहीं हो सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि वर्तमान सरकार इस सूत्र के तहत देश में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दे जिसने सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रिययस का नारा दिया। कवियों ने पहले भी उसी मंत्र को कायम रखा था और आज भी उसी मंत्र को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। अगर आप उर्दू साहित्य की पूरी शायरी का अध्ययन करें तो आपको कहीं भी देशद्रोह नहीं मिलेगा। देश के लिए प्रेम और देश के भीतर अमन-चैन उर्दू शायरी का आदर्श वाक्य रहा है।
उर्दू शायरी की शुरुआत दक्कन से हुई। दक्कानी कवियों ने अपने शुरुआती दिनों से ही उर्दू कविता में समानता, सहिष्णुता और परोपकार की भावनाओं का संचार किया। नुसरती, निशाती, हाशमी, नूरी, गव्वासी, आदिल शाह और कुली कुतुब शाह से लेकर वली देकनी तक राष्ट्रीय एकता का वातावरण इनके काव्य में दिखाई देता है। इन शायरों ने दिल को छू लेने वाली शायरी लिखी और कोशिश कि देश की तरक्की और खुशहाली के लिए सभी हिंदू और मुसलमान मिलकर काम करे। उत्तर भारत के प्राचीन उर्दू शायरों में अफजल झांझानवी, शेख यहया मुनीरी, जाफर ज़टल्ली और आब्रो आदि शामिल है। भारतीयता कविता में बहुत समृद्ध हो गई है। सूफियों की तरह इन कवियों के शब्दों में भी जनवाद और भारतीय मिजाज की गंध आती है। एक ओर उत्तर भारतीय कवियों का नाम आता है तो दूसरी ओर दक्षिण भारत में कबीर दास, मानक, तुलसीदास, अमीर खुसरो और बाबा फरीद आदि का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने अपने माध्यम से राष्ट्रीय एकता का दीप जलाया है। शाह हातिम के बाद दिल्ली में मीर, दर्द, सोज, कायम, कमान, हिदायत और ब्यान आदि कवियों के नाम सामने आए जिन्होंने अपनी शायरी में समता, भाईचारा और राष्ट्रीय एकता की भावनाओं को उजागर किया।
उर्दू के शुरुआती दौर में नज़ीर अकबराबादी ने अपनी शायरी में राष्ट्रीय एकता को आसमान तक पहुँचाने का काम किया, उन्होंने गुरुनानक, होली, दीवाली, राखी, पलपन, बसारी, बजिया, मेला और बरसात आदि पर कविताएँ लिखी है अख्तर, आरजू, शेफ्ता, मुनीर, शिकोह आबादी आदि के शब्दों में देशभक्ति और भारतीय मिट्टी के प्रति प्रेम पाया जा सकता है। इसी प्रकार गालिब की शायरी अपने युग की व्याख्या में अद्वितीय है, जो भाईचारा, मानवता, वतन की अभिव्यक्ति करती है। धर्मपरायणता, एकता और राष्ट्रीय एकता की तस्वीरें मुस्कुराती है। इन चित्रों में गालिब की व्यापक दृष्टि और निष्पक्षता की शुद्ध पंक्तियों और बिन्दू फेल कर समूची भारतीय सभ्यता में व्याप्त हो गए हैं।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीय सभ्यता और राष्ट्रीय एकता को नष्ट कर दिया था। इस त्योहारों और अन्य सामाजिक आयोजनों में साम्प्रदायिक सौहार्द और प्रेम व भाईचारे की जीती-जागती मिसालें मिलती है, उसी तरह सूफियों की दरगाहों में भी मिलती हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर श्रद्धालुओं की भीड़ में हिंदू, मुस्लिम और सिख सब ही नजर आते हैं, राम और रहीम के सांसारिक भेद मिट जाते हैं। हजरत निजामुद्दीन के मजार पर ऐसे नजारे हर बार देखने को मिलते हैं। गुलाब की खुशबू से महकती हजरत निजामुद्दीन की मजार एक अनोखा नजारा पेश करती है। दीवाली हो या बसंत या फिर रमजान, हजरत निजामुद्दीन दरगाह की शान का कोई जवाब नहीं है और इस दरगाह से दिया जाने वाला प्यार और भाईचारे का संदेश बेजोड है। यह केवल हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में जाने के बारे में नहीं है बल्कि उनकी शिक्षाओं के प्रकाश में रहने के बारे में भी है।
इसमें कोई शक नहीं कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जब हर कोई दुनियावी जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन रात भागदौड कर रहा है तो दिल्ली के व्यस्त, बड़े और चहल-पहल भरे इलाके में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर एक राहत महसूस होती है मौन और भक्ति अध्यात्म के प्रमाण है। हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के नजारे देखने के लाएक होते है, जहां दरगाह में मुसलमान हाथ उठाकर इबादत करते नजर आते है. वहीं हिंदू धर्म के लोग हाथ जोड़कर ख्वाजा निजामुद्दीन से अपनी आस्था का इज़हार करते नजर आते हैं। निःसंदेह दरगाह के ऐसे नजारे देखकर लगता है कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया सिर्फ मुसलमान के ही नहीं, सबके ख्वाजा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उपसंगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के प्रमुख इंद्रेश कुमार ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं। कुछ समय पहले उन्होंने दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर चादर चढ़ाई थी, इस मौके पर इंद्रेश कुमार ने हजरत निजामुद्दीन औलिया के 719वें उर्स और हिंदू धर्म के त्योहार दिवाली के मौके पर मिट्टी के 719 दीपक जलाए, दरगाह के उपासकों में से एक सैयद अफसर अली निजामी ने इंद्रेश कुमार की दस्तर बन्दी की। इस अवसर पर इन्द्रेश कुमार ने उपस्थित पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि भारत त्यौहारों और मेलों का देश है, इनके द्वारा लोगों में एकता और सहमति बनती है और भाईचारा मजबूत होता है। उन्होंने बताया कि उन्होंने देश में शांति, एकता और समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। उन्होंने दीपावली पर्व के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह विभिन्न संप्रदायों के बीच मेल-मिलाप स्थापित करता है और नफरत व पूर्वाग्रह को समाप्त करता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हम देश में शांति, एकता और भाईचारा चाहते हैं।
अजमेर स्थित हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह दुनिया भर में मशहूर है। यहां हर साल वार्षिक उर्स का आयोजन होता है, जिसमे हिंदू श्रद्धालुओं की संख्या मुसलमानों की संख्या से कम नहीं होती। है। दरगाह पर पहुंचते ही हिंदू-मुस्लिम घुलमिल जाते हैं और वहां पुंच कर कोई हिंदू या मुसलमान नहीं होता, हर कोई सिर्फ इसान होता है। यहां हिंदू-मुस्लिम एकता और एकजुटता की अनूठी मिसालें देखी जा सकती हैं। यह एक ऐसा तीर्थ है जहां न केवल धार्मिक लोग आते है, बल्कि फिल्म, औद्योगिक और राजनीतिक जगत की महत्वपूर्ण हस्तिया भी यहां आती रहती हैं। हाजी वारिस अली शाह की दरगाह भी हिंदू-मुस्लिम एकता की बेहतरीन मिसाल है। यह दरगाह उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के देवा कस्बे में स्थित है। यहां का देवी मेला व उर्स पूरे विश्व में प्रसिद्ध है जो एक महीने तक चलता है। इसके लिए राजधानी लखनऊ से विशेष बसें चलाई जाती है और पूरे भारत से व्यापारी भी अपनी दुकानों के साथ यहां आते हैं, जहां बड़ी संख्या में हिंदू-मुस्लिम खरीदारी करने और दरगाह वारसी घूमने के लिए दूर-दूर से आते हैं। वास्तव में, धर्मों के बीच सद्भाव और हिंदू-मुस्लिम एकता हमारे देश की एक विशेषता है जिसकी जड़ें बहुत गहरी है। समय-समय पर उठने वाली कड़वाहट इन जड़ों को कमजोर नहीं कर सकती। इसी एकता और एकजुटता के बल पर आज देश आगे बढ़ रहा है।
आलेख : अहराहुल हुदा शम्स
Post A Comment: