उर्दू में सहिष्णुता, प्रेम और भाईचारे की भावना उतनी ही पुरानी है जितनी कि हिंदू और मुसलमानों के बीच का रिश्ता। उर्दू में एकता और एकजुटता की परंपरा किसी दबाव की वजह से नहीं है। इसके पीछे एक हज़ार साल का इतिहास है। उसने हमेशा आपसी अलगाव और दूरी को पाटने की कोशिश की है। यही रिश्ता है जो काबा को शिवाला से और हिंदू को मुस्लमान से जोड़ता है। उर्दू के शुरुआती दिनों से ही मुसलमान कलमकारों के साथ हिंदू कलमकार भी मौज़ूद थे। उनमें चंद्रभान ब्राह्मण, मुंशी वली राम वली, बुद्ध सिंह और राम किशन के नाम उपलब्ध हैं। ये इस समय के हैं जब वली दक्कनी का दीवान अभी तक दिल्ली नहीं पहुंचा था। वली राम वली शाहजहां के पुत्र दारा शिकोह के विशेष सलाहकार थे।
दक्कन में भी निज़ामी, सुल्तान महमूद, कुली कुतुब शाह, वजही, गव्वासी और वली के समय में कई हिंदू कवि थे लेकिन केवल तीन हमारे सामने हैं। सेवक, राम राव और जसवंत सिंह मुंशी। सेवक ने जंगनामा लिखा, राम राव ने हज़रत हुसैन की शहादत की घटनाओं पर एक किताब लिखी। मुंशी ने औरंगज़ेब के गवर्नर साआदतुल्ला खान के दरबार में एक प्रतिष्ठित पद संभाला। उनके लेखन उर्दू और फ़ारसी दोनों में पाए जाते हैं।
मुहम्मद शाह के ज़माने से ही उत्तर भारत में भी शे'र व शायरी की चर्चा होने लगी, खवास फ़ारसी से उर्दू की तरफ आने लगे और पचास सालों में उत्तर भारत के ज़्यादातर हिंदू-मुस्लिम इसी भाषा में शायरी करने लगे। उर्दू साहित्य के इस प्रारंभिक काल में टेक चंद बहार, आनंद राम मुखलिस, बंद्रा बिन ररक्कम, आफताब राय रुसवा, खुशवक्त राय शादां, आजायब राम मानशी, बुद्ध सिंह परवाना और राजा राम नारायण उन हिन्दू शायरों में से हैं जिन्होंने उर्दू साहित्य की अपार सेवा की।
उर्दू की प्राचीन साहित्यिक परंपराओं में सबसे महत्वपूर्ण मुशायरों की परंपरा है। मुशायरों की प्रथा उर्दू साहित्य में संघवादी प्रवृतियों की पहली अभिव्यक्ति है। शायद ही कोई मुशायरा हुआ हो जिसमें मुसलमान और हिंदू शामिल न हों। शे'र व शायरी की ये मजलिसें हर काल में आम रही हैं। उनके कुछ रीति-रिवाज और तौर-तरीके थे, जिनका सम्मान हिंदू और मुस्लिम दोनों के लिए अनिवार्य माना जाता था।
मुशायरे आमतौर पर किसी उच्च दर्जे के व्यक्ति के घर पर आयोजित किए जाते थे। प्राचीन उर्दू मुशायरों का इतिहास साबित करता है कि मेजबान कभी हिंदू हो कभी मुसलमान होते थे। कभी कभी मुशायरों का मकसद दोनों संप्रदायों को एक दूसरे के करीब लाना भी होता था। ऐसा ही एक प्रयास था लखनऊ का वह मुशायरा जो आईना ए हिंदुस्तान कहा जाने लगा। यह मुशायरा हरी सरन दास के घर पर आयोजित किया गया था। इसके अलावा मुंशी लक्ष्मण प्रसाद और रंग बिहारी लाल सूसन ने लखनऊ में कई वर्षों तक मुशायरे किए। दिल्ली में ऐसे मुशायरों का आयोजन अमरनाथ साहिर, प्यारेलाल रौनक और चंडी प्रसाद शैदा ने किया। सिकंदराबाद के सेठ कंवर बद्री कृष्ण फरोग इन मु शायरों के संस्थापक थे। इस प्रकार हिंदू मुस्लिम घरों में और मुसलमान हिंदू घरों में बैठते थे और उस समय के समाज ने इन संबंधों में कभी कोई अंतर नहीं आने दिया।
उर्दू विधाओं में ग़ज़ल सबसे महत्वपूर्ण है। ग़ज़ल में पाए जाने वाले हिंदू-मुस्लिम सहिष्णुता के माहौल का अनुमान निम्न अश'आर से लगाया जा सकता है...
मैं न जानूं काबा व बुतखाना व मायाखाना कू
देखिया हूं हर कहां दसता है तुझ मुख का फज़ा
कुली कुतुब शाह
मशरबे इश्क़ में हैं शैख व ब्राह्मण यकसां
रिश्ता व सुबहा व जुन्नार कोई क्या जाने
सिराज डेक्कनी
कोई तस्बीह और जुन्नार के झगड़े में मत बोलो
यह दोनों एक हैं उनके बीच रिश्ता है
आबरू
मीर के दीन व मज़हब को क्या पूछो हो उन ने तो
कशका खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तकी मीर
कैसा मोमिन, कैसा काफ़िर, कौन है सूफ़ी, कैसा रिंद
बशर हैं सारे बंदे हक़ के सारे झगड़े शर के हैं
इब्राहीम ज़ौक
मशरबे सुल्हे कुल है ए जाहिद
दैर भी एक हरम का साया है
अमीर मीनाई
सरे नियाज़ सलामत रहे पए तसलीम
नहीं तमीज़ हमें दैर क्या हरम क्या है
दाग़ देहलवी
हिंदू कवियों में भी ऐसी भावनाएं पाई जाती हैं और सच्चाई यह है कि यकजेहदी का यह स्त्रोत्र हमेशा से ग़ज़लों के स्वर में मौजूद रहा है।
अस्ल मतलब एक है आगाह ना आगाह का
अल अलक का तरजुमा अरबी में लफ्ज़ अल्लाह का
जवाहर सिंह जौहर
दैर व मस्जिद पर नहीं मौकूफ कुछ ए गाफिलों
यार का सजदा से मतलब कहीं सजदा करो
माहो राम जौहर
दल बदल आईना है दैर व हरम
हक़ जो पूछो एक दर है दो तरफ
दया शंकर नसीम
दैर व हरम में जलव ए कुदरत है आशकार
जुन्नार व सुबहा में नहीं फर्क एक तार का
राजा किशन कुमार वफ़ा
अपना तो सर झुके है दोनों तरफ की उसकी
तसवीर उसकी और है हरम में खाका
प्यारेलाल आशोब
जिस गोशा ए दुनिया में परस्तिश हो है वफ़ा की
काबा है वही और वही बुतखाना है मेरा
चकबस्त
एक ही जलवा मायने दैर व काबा है मगर
इत्तेफ़ाक ए राय शैख व ब्राह्मण में क्यों नहीं
शेर प्रसाद देवी
ये सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता, ऐसे कई उदाहरण उर्दू शायरी से पेश किए जा सकते हैं। उर्दू कवियों ने ईमानदारी से रहित रस्मो रिवाज़ का विरोध किया है क्योंकि वे जानते हैं कि यही दीवारें हैं जो हिंदू को मुस्लमान से और मुसलमान को हिंदू से अलग करती हैं।
यहां तस्बीह का हल्का वहां जुन्नार का फनदा
असीरी लाज़मी है मजहब शेखो ब्राह्मण में
चकबस्त
और क्योंकि धर्म के ये पारंपरिक बंधन दूरी पैदा करते हैं, वे दिल हक़ को उनसे मुक्त होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
बलाए जां हैं ये तस्बीह और जुन्नार के झगड़े
दिल हक़ बीन को हम कैद से आज़ाद करते हैं
चकबस्त
इकबाल ने बबांगे दुहले कहा था कि हम सए हिंदी हैं और धर्म हमें अलग होना नहीं सिखाता। उर्दू कवि इस भारतीय भावना के दूत हैं। वह राष्ट्र की शिराज़ बंदी की लालसा रखते हैं। जब भी बाहरी कारकों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की है, उर्दू कवियों ने इसे अच्छी नज़र से नहीं देखा
कौम की शिराजा बंदी का गिला बेकार है
तर्जे हिंदू देख कर तर्जे मुसलमां देख कर
चकबस्त
रुक अगर कुफर के हमलों से न ईमां पाए
सुवर्ग हिंदू को मिला खुल्द मुसलमां पाए
द्वारका प्रसाद उफुक
उर्दू शायर आमतौर पर हमें एकता की मशाल जलाने के लिए कहते हैं क्योंकि जब दिल उसके प्रकाश में रोशन होता है तो नफ़रत का कोहरा स्वतः ही दूर हो जाता है।
आंधियों के झगड़े एकदम सभी भुला दें
आ दिल से इम्तियाजे दैर व हरम मिटा दें
करके चराग रोशन फिर इत्तेहाद का हम
जन्नत से बढ़ कर दिल के काबे को जगमगा दें
लाल चंद फलक
इस्लाम और हिंदू धर्म की उस व्यवस्था में बदलाव का आह्वान करते हैं जो भी सच्चाइयां हैं, उर्दू शायर उनके दीवाने हैं, उन्हे गले लगाने का आग्रह करते हैं।
हरम से जाओ तो रस्ते से दैर के जाओ
दुआएं ले के बुतों से खुदा के घर को चलो
और वे धर्म की उस व्याख्या में बदलाव का आह्वान करते हैं जो शून्यवाद सिखाती है। वह उस निर्जीव, अप्रचलित और पारंपरिक अनुष्ठान के के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हैं जो दिल को दिल से और आदमी को आदमी से दूर रखता है।
आ गैरियत के पर्दे एक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक्श ए दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
इकबाल
इस नए शिवाले का ईमान कविता के स्तर पर एकता है, जिसके लिए प्रार्थना करते हैं।
बाकी रहे न हिंदू व मुस्लिम में कुछ भी फ़र्क
हो जाएं एक मिस्ल दिल व जां ख़ुदा करे
ईमान इत्तेहाद का ईमा खुदा करे
ईसाई हों, हुनूद हों, मुस्लिम हों ख्वाह सिख
सब नाम पे हों सुलह ले कुरबा खुदा करे
बागेश्वर प्रसाद मुनव्वर लखनवी
प्राचीन उर्दू साहित्य में आपसी सहिष्णुता और धार्मिक उदारता का रंग इतना गहरा रहा है कि उस समय के मुस्लिम लेखक श्री गणेश या सरस्वती की स्तुति से अपनी पुस्तकों की शुरुआत करते थे, और हिंदू बिस्मिल्लाह या ऐसे अन्य पवित्र शब्दों का उल्लेख अपनी पुस्तकों के आरंभ में करते थे। मुशायरे शुरू में ही गंगा जमनी सभ्यता की परंपरा के अग्रदूत रहे हैं। यह परंपरा आज भी जारी है। आज भी कोई मुशायरा हिंदू कवियों के बिना अधूरा माना जाता है।
आलेख : तहसीर अहमद
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