राहुल गांधी से जुड़ा यह मामला नेताओं के लिए एक नजीर है। देश के रहबरों को चाहिए कि वे आने वाले दिनों में याद रखें कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। मर्यादा का पालन होना चाहिए। अगर आज हम संविधान के ढांचे में खरे नहीं उतरेंगे तो आने वाली पीढ़ी से कैसे उम्मीद कर सकते हैं।
राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म हो गई। मानहानि मामले में गुजरात की सूरत कोर्ट ने सोमवार को राहुल गांधी को दोषी ठहराया था और दो साल की सजा सुनाई थी। इसी आधार पर लोकसभा सचिवालय ने शुक्रवार को नोटीफिकेशन जारी कर दिया। कांग्रेस के लिए यह बड़ा झटका है, लेकिन कांग्रेस इसे मोदी सरकार और भाजपा की एक सोची-समझी चाल बता रही है, मोदी को कोस रही है, उसका कहना है- केंद्र सरकार के पास अडाणी के मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाने और राहुल गांधी को चुप कराने का इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता था। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कहते हैं, जितनी तेजी से निर्णय लिए गए, वह बताता है कि राहुल गांधी से भाजपा कितनी डरी हुई है। कांग्रेस के साथ-साथ अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला रहे हैं। राहुल की सदस्यता खत्म करने को लोकतंत्र के इतिहास में काला धब्बा बता रहे हैं। यहां तक कि जो टीएमसी कल तक कांग्रेस से अलग चलने के मंसूबे बना रही थी, आज राहुल के मामले को लेकर कांग्रेस के साथ खड़ी है। सियासी घमासान मचा है और इस घमासान में कुख्यात अमृतपाल सिंह के गुनाहों, उसके फरार होने और किसानों पर कहर बरपा रही आंधी-तूफान व बेमौसम की बरसात से हुए नुकसान के मुद्दे पीछे छूट गए हैं।
दरअसल, राजनीतिक फायदे के लिए राहुल गांधी खुद को दोषी नहीं मानते। शुक्रवार को उन्होंने कहा, ‘मैं भारत की आवाज के लिए लड़ रहा हूं, मैं हर कीमत चुकाने के लिए तैयार हूं।’ लेकिन अगर विपक्ष ईमानदारी से स्वीकार करे तो कानून से ऊपर कोई नहीं है। अदालत के फैसले के बाद संसद की सदस्यता खत्म होना कोई नहीं बात नहीं है। इससे पहले भी इस तरह के निर्णय हुए हैं। कई विधायक और सांसद अपनी सदस्यता खो चुके हैं। फर्क इतना है कि पहले की सरकारें जहां अदालती फैसले के बाद अपना निर्णय करने में देर करती थीं, आज वहीं मोदी और योगी सरकार एक पल भी गंवाने को तैयार नहीं हैं। कुछ लोगों को यह ‘जल्दबाजी’ हजम नहीं हो रही है लेकिन सच यही है कि नियम-कानून का पालन इसी तरह होना चाहिए। बसर्ते सरकार हर मामले में इसी तरह की तेजी दिखाए। अगर वह दोहरा रास्ता अपनाती है तो जनहित और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरा होगा, अन्याय होगा और अधर्म कहा जाएगा।
हम भारत के संविधान और भारतीय लोकतंत्र की बात तो करते हैं लेकिन जब उसके कायदे कानून मानने की बात आती है तो उसमें यकीन नहीं रखते। उसके नफे-नुकसान को अपने हिसाब से तौलते हैं। अपने नजरिए से देखते हैं। यह अनीति है। इसे स्वस्थ्य राजनीति नहीं कहा जा सकता। अपवाद स्वरूप मोदी सरकार भी इससे अछूती नहीं है। हम सभी जानते हैं कि चुनाव आते ही तमाम पार्टियों के नेता बेलगाम हो जाते हैं। उनकी भाषा-शैली बदल जाती है। आरोप प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो जाता है। अभद्रता की सीमा टूटने लगती है। बड़े-बड़े सियासतबाज जाति, धर्म और वर्ग पर उतर आते हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं। अधिकारियों और कर्मचारियों में अपनी सरकार बनने पर देख लेने तक का डर-भय पैदा करने की कोशिश करते हैं, यह ओछी और गंदी राजनीति है। चुनाव जीतने के लिए सियासी चोले में शैतान नहीं कबूल किया जा सकता। इसलिए बात योगी और मोदी की नहीं है, किसी न किसी को तो नई शुरुआत करनी ही होगी।
राहुल गांधी से जुड़ा यह मामला नेताओं के लिए एक नजीर है। देश के रहबरों को चाहिए कि वे आने वाले दिनों में याद रखें कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। मर्यादा का पालन होना चाहिए। अगर हम आज संविधान के ढांचे में खरे नहीं उतरेंगे तो आने वाली पीढ़ी से कैसे उम्मीद कर सकते हैं? चुनावी गणित को पक्ष में करने के लिए दुष्प्रचार और अभद्र भाषा-शैली को किसी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। हम जो बोलते हैं, कहते हैं, उसका जनमानस पर परोक्ष और अपरोक्ष दोनों तरह से असर पड़ता है। इसलिए हमें सतही मानसिकता से उबरना होगा। साफ-सुथरी राजनीति करनी होगी, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा और भारत के संविधान में भी लोगों की आस्था बढ़ेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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