कश्मीर घाटी की बात करने से पहले इसकी भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी है। दरअसल इस राज्य के तीन हिस्से कश्मीर, जम्मू और लदाख है। कश्मीर के इन तीनों हिस्सों पर प्राचीन काल से अलग-अलग राजाओं का शासन रहा है। भौगोलिक रूप से, यह क्षेत्र उत्तर में चीन और अफगानिस्तान, पूर्व में चीन, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और पंजाब से मिला हुआ है। पश्चिम में, यह पाकिस्तान और पंजाब के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से मिला हुआ है। इस राज्य की दो राजधानियाँ है। शीतकालीन राजधानी जम्मू है, और ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर है।
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के तुरंत बाद कश्मीर घाटी का लगभग 13.297 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पड़ोसी देश के नियंत्रण में आ गया। भारत में घुसपैठ की ज्यादातर घटनाएं इसी इलाके से होती है। देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान अस्तित्व में आया और इस देश ने अपनी सेना और कबायली लोगों की मदद से हमारे देश पर हमला किया। भारतीय सेना के जवानों ने बहादुरी दिखाते हुए पाकिस्तानी सेना को परास्त किया और उम्मीद थी कि हमारी सेना पाकिस्तान में घुसकर उसके एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लेगी, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विश्व के नेताओं के अनुरोध और दबाव को देखते हुए युद्धविराम की घोषणा की और नियंत्रण रेखा स्थापित की गई। तब से यह शांतिपूर्ण क्षेत्र एक अशांत क्षेत्र बन गया। पाकिस्तान अपनी नापाक हरकतों के चलते इस क्षेत्र के लोगों को चैन से रहने नहीं देता और अक्सर अपनी सीमा से घुसपैठ कर भारत में भगोड़ों और लुटेरों को भेजता है।
5 अगस्त, 2019 को भारतीय संसद ने अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया और जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया। यह निर्णय केंद्र और घाटी के युवा लड़के और लड़कियों की राष्ट्रीय धरा में वापसी की दृष्टि से था जो स्थायी बंदूकों की छाया में अपने जीवन के अनमोल क्षणों को बर्बाद कर रहे थे।
कुछ दिन पूर्व घाटी के बारे में एक फिल्म देश भर में ध्यान का केंद्र और चर्चा का विषय बन गई थी। इस फिल्म का नाम है "द कश्मीर फाइल्स", जिसे विवेक अग्निहोत्री ने डायरेक्ट किया है, और कुछ माह पहले ही देश के सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी, फिल्म में कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार को दिखाया गया है। लोगों को इस तथ्य से अवगत होने की आवश्यकता है कि 19 जनवरी, 1990 को जब बहुत से कश्मीरी पंडितों ने जम्मू-कश्मीर से पलायन किया था, उस समय बीपी सिंह सरकार ने जनता के समर्थन से राष्ट्रीय गठबंधन बनाया था। जनता दल सरकार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से बनी थी और जगमोहन उस समय कश्मीर के राज्यपाल थे।
कश्मीरी पंडितों का अपनी मूल भूमि से सामूहिक पलायन निश्चित रूप से एक बड़ी त्रासदी है जैसा कि कश्मीर फाइल्स में दर्शाया गया है लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किसी के लिए सहानुभूति दूसरे के लिए घृणा में नहीं बदलनी चाहिए क्योंकि ज्यादातर लोग बेहद भावुक होते हैं। इस मानवीय त्रासदी के वास्तविक कारणों के बारे में सोचने के बजाय, वे समय के आवेग के तहत भावनाओं के बहकावे में आने से खुद को रोकने की कोशिश नहीं करते।
कई अखबारों और पत्रिकाओं में एकता और आम सहमति को मजबूत करने वाली खबरें पढ़ सकते हैं कि कश्मीरी पंडितों के प्रवास के कारण उनके क्षेत्र में वीरान पड़े मंदिरों की देखभाल क्षेत्र के मुसलमानों द्वारा इस उम्मीद में की जा रही है कि जब कश्मीरी पंडित लौटेंगे तो उन्हें शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े। ऐसे में कई कश्मीरी पंडित जिन्होंने अपने परिवारों के साथ घाटी नहीं छोडी, उनकी देखभाल भी स्थानीय मुसलमानों द्वारा की जा रही है और जब कमजोरी या बीमारी के कारण किसी का निधन हो जाता है तो कश्मीरी पंडित का अंतिम संस्कार मुसलमानों द्वारा हिंदू तरीके से किया जाता है।
जब तक भाईचारे का यह माहौल रहेगा, उम्मीद है कि कश्मीरी पंडित घाटी में जरूर लौटेंगे और एक बार फिर घाटी शांति की पालना बनेगी। दरअसल शांति और प्यार का माहौल कश्मीर की आत्मा है और अगर गहराई से देख जाय तो इस माहौल को बनाने में सूफियों की अहम भूमिका रही है।
आज भारत में जो मुसलमान हैं सूफियों की शिक्षाओं के ही पैरूकार हैं। उन्होंने स्थानीय भाषाओं में अपने भाषणों के माध्यम से लोगों के दिलों में जगह बनाई। इस्लाम बादशाहों की तलवारों से बिल्कुल नहीं फैला, सूफियों ने समानता का संदेश दिया, ऊंच-नीच का भेद मिटाया, शांति और सद्भाव का संदेश फैलाया और देश में गंगा-जमुनी सभ्यता को बढ़ावा दिया।
वेदांत के हिंदू दर्शन के साथ इसकी अनुकूलता के कारण, यहां के लोगों ने सूफी विचारों को बहुत सरलता से स्वीकार किया और आज भी सूफियों के आसताने धर्म या जाति की परवाह किए बिना सभी के लिए खुले हैं। सूफियों के आसताने भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता को अपने हृदय से लगाए रखते हैं। यहां का माहौल लोगों को सुकून देने के साथ-साथ जीने का सलीका भी सिखा रहा है। इन आसतानों से यह सीख भी मिलती है कि आपसी कृतज्ञता से कैसे रहना चाहिए।
आपको पूरे देश में दरगाहें और ख़नक़ाह दिखाई देंगी। पश्चिम में ख्वाजा बंदा नवाज गेसू दराज, अजमेर में ख्वाजा अजमेरी, दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, बारा बांकी के देवा में वारिस अली शाह का शानदार अस्ताना, मारहरा में खानकाह बरकतिया, गोरखपुर में मियां साहिब इमामबाड़ा के संस्थापक रोशन अली शाह और उनके बाद की पीढ़ी देश में अमन-चैन का माहौल बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
सूफीवाद के कई मार्ग हैं जैसे चिश्तिया, सहरवरदिया, नक्शबंदिया, कलंदरिया और कादिरिया। ये सारी श्रृंखला हजरत अली शेर खुदा तक पहुंचता है। सूफीवादी तरीकत के अनुयायी हैं जो शरीयत के पालन के साथ-साथ ईश्वर के मानव के प्रेम के प्रति समर्पित होता है। सूफी संतों ने देश में भाईचारे के माहौल को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और आज के दौर में भी उनके आस्ताने भावपूर्ण नगमों से दिलों में प्रेम की गंगा बहा रहे हैं।
कश्मीर घाटी को जन्नत नजीर भी कहा जाता है। कश्मीर में कई दरगाहें और आस्ताने हैं। डल झील के किनारे स्थित मस्जिद और खनकाह जिसे दरगाह हजरत बल के नाम से जाना जाता है, लोगों का मानना है कि रसूल (स०) के पवित्र बाल इस दरगाह में है और इस विशेषता के कारण दरगाह हजरत बल पूरे मुस्लिम जगत में प्रसिद्ध है। इस दरगाह की स्थापना ईरान के हमदान शहर के धर्मगुरु मीर सैयद अली हमदानी के शिष्यों ने की थी। मीर सैयद अली हमदानी विद्वान थे। उन्होने कई पुस्तकें लिखी जैसे मिन्हाज-उल-अरीफिन और कसीदा नातिया, ज़ाद-उल-अकबा उन की यादगार किताबें हैं। उन के उर्दू में अनुवाद हो चुके हैं। उनके शिष्यों का कश्मीर में वास्तुकला पर बहुत प्रभाव था।
कहा जाता है कि सैयद अली हमदानी के 700 छात्रों ने कश्मीर घाटी में लकड़ी की नक्काशी की कला को लोकप्रिय बनाया था। खाकाह नक्शबंद की स्थापना 14वीं सदी के शेख बहाउद्दीन के शिष्यों और भक्तों ने की थी। यह दरगाह कश्मीर के सबसे पुराने सांस्कृतिक स्मारकों में से एक है। कश्मीरी मूल के सुल्तान-उल-अरीफिन शेख हमजा मखदूम की दरगाह बारामूला में है। ऐसा कहा जाता है कि चक राजाओं के शासनकाल के दौरान, शेख हमजा मखदूम ऋषि संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसकी शुरुआत और शिक्षा ख्वाजा ओवैस करनी ने की थी।
दरगाह पीर दस्तगीर का निर्माण महान पीर हजरत सैयद अब्दुल कादिर जिलानी के भक्तों ने करवाया था। इन दरगाहों और आस्ताने में एक महत्वपूर्ण नाम श्रीनगर के उक्त इलाके में स्थित चांद गांव में बाबा कियामुद्दीन की दरगाह का है। लोगों की आस्था है, अकीका करने के लिए बच्चे बड़ी संख्या में आते हैं और खुशी-खुशी अपने घरों को लौट जाते हैं। इस तरह देखा जाये तो सूफियों की शिक्षा की, अमन व शांती का माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है।
आलेख : मोहम्मद राशिद खान
Post A Comment: