दिवाली की रात दिया जलाने के बाद हर घर के दरवाजे पर लोग उक्का पाती को जलाकर घुमाते और भांजते हैं, इसके साथ ही दिवाली मनाने का रिवाज पूरा होता है।
"दिवाली के ऐलो त्योहार, उक्का पाती धू धू ,लक्ष्मी घर दरिद्र बाहर।"
दिवाली के अवसर पर गायी जाने वाले देशज शैली के इस फकरे से बिहार एवं मिथिलांचल के अधिकतर क्षेत्र के लोग वाकिफ हैं । इस उक्का पाती रस्म के बिना मिथिलांचल में दिवाली का पर्व पूरा नहीं होता।
सनाठी( पटसन के पौधे से यानी निकालने के बाद बचा हुआ लकड़ी जैसा हिस्सा ) और पाट (सन) की रस्सी से खास तरह से क्रॉस तैयार करते हैं, जिसे उक्का पाती कहते हैं। इसे आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। दिवाली की साज-सज्जा के सामान के साथ-साथ इसे भी बाजार में बेचा जाता है।
पितरों को प्रकाश दिखाने की परंपरा - उक्का पाती की पारंपरिकता एवं मान्यता अपने पितरों और पूर्वजों को सम्मान देने से जुड़ी है, जो पितर श्राद्ध पक्ष में धरती पर आते हैं, उन्हें देवलोक जाते हुए मार्ग दिखाने के लिए प्रकाश दिखाने का कार्य उक्का पाती से किया जाता है।
आँगन से पूजा घर, बाहर से अंदर की ओर चावल के पिठार से लक्ष्मी जी के अल्पना कला से पैर बनाए जाते हैं और आँगन में कलश रखकर उसके ऊपर दिया रखते हैं फिर घर के सारे पुरूष सिर पर पगड़ी पहनकर हाथ में उक्का पाती ले कलश के दिये से उसमें आग जलाते हैं और चावल, पान,सुपाडी और पैसे घर के अंदर की ओर छींटते हुए ''लक्ष्मी घर, दरिद्र बाहर" कहते हैं।
उसके बाद उक्का पाती लेकर सारे पुरूष एक साथ बाहर निकलकर आकाश की ओर सात बार दिखाते हुए जलाते हैं फिर जलती हुई अग्नि का पांच बार तर्पण करते हैं उसके बाद जलती हुई अग्नि से सात लकड़ी बीन कर उसमें से पांच संठी निकालते हैं और 5 फलों का पौधा लगाने का भी संकल्प लेते हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने का भी हम लोग संदेश देते हैं। उक्का पाती के पीछे जहां धार्मिक महत्व है वही यह पर्यावरण संतुलन खा वृक्षारोपण का भी संदेश देती है।
देखें सहरसा (बिहार) के एक परिवार में उक्का पाती का video...
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