बात  है  कुछ  और  मेरे यार की,

चाँद जैसी है चमक रुख़सार की।


ख़ुद बता देते कि क्यों नाराज़ हो,

क्या ज़रूरत थी तुम्हें तक़रार की।


बिक रहे ईमान घर - घर देखिए,

अहमियत कोई नहीं बाज़ार की।


हैं नज़र कातिल कटारी तेज़ तो, 

क्या जरूरत है तुम्हें हथियार की।


जिसको तुम समझे थे क़स्द-ए-ख़ुदकुशी,

इंतहां थी वो हमारे प्यार की ।


ये जरूरत है या लत मालूम क्या,

बारहा  होती  तलब  दीदार की।


हमको तन्हा छोड़ कर तो चल दिए,

अब कमी तुमको खलेगी प्यार की।


दोस्तों के काम आना शौक था,

ज़िंदगी इसमें बहुत दुश्वार की।


बाप को बेटे ने रुसवा कर दिया,

बोलती हैं सुर्खियां अखबार की।


*क़स्द-ए-ख़ुदकुशी - आत्महत्या का इरादा


© पुनीत कुमार माथुर 'परवाज़'


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