सब श्रृंगार किये तन कामिनी, 

पिय   की राहे़ं देख   रही   है! 

देख    रसीली   बैन   सुरीली, 

अंतरमन  में  झाँक  रही  है!! 


उनके प्रिय बलमा  नहिं  आये, 

अंतरमन वह है अति ब्याकुल! 

लेकिनवह समझावति मन को, 

आपन  मन  बहलाय  रही है!! 


कितनी  सुन्दर  नयन छबीली, 

कितनी   सुन्दर  श्रृंगार  किये! 

मोहति  है  मेरे   मन  को  वह, 

लेकिन जग शरमाय  रही  है!! 


नैन ज्ञज्ञकाजरा   माथे   बेंदी, 

होठ  लाल  चमकाय  रही ये! 

कानन- कुण्डल लट है  फहरे, 

कर कंगन खनकाय  रही है!! 


लगे हिना कर  भृगुटी में रखि, 

टेडी़  नयनों  से   वह   झाँके! 

वह सोलह श्रृंगार  किये  तन, 

पिया मिलन मन चाह रही है!! 


अर्ध  बसन  पहने  बक्षस्थल, 

रकत  वर्ण  सारी  वह पहनें! 

कितनी सुन्दर नारि लगे यह, 

श्रृंगारित  मन  भाय  रही है!! 


छाय रहे परदेश बालमा, 

गुजरे वर्ष नहि फिर आये! 

अब कैसे दिन होय गुजारा, 

मेरी जिय ना मान रहा है!! 

धर्मपाल एस. एल. बरमन 
भूतपूर्व सैनिक, लेखक व कवि 
शहडोल (म.प्र.)






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