क्या करूँ मैं इस दिले बीमार का,
ये तो तोहफ़ा है मेरे इक यार का.
बढ़ रहें हैं दरमियाँ जब फ़ासले,
फ़ायदा क्या है किसी तक़रार का.
कब तलक कोई यहाँ अब साथ है,
क्या भरोसा है किसी के प्यार का.
ज़िंदगी सस्ती हुई है इन दिनों,
और चढ़ता भाव है बाज़ार का.
नित नए क़ानून हम पर थोपना,
इक यही तो काम है सरकार का.
बस ग़ज़ल कहना ही मेरा शौक है,
सबकी नज़रों में है ये बेकार का.
कितने अपने दूर हमसे कर दिए,
वक्त ज़ालिम है ये अबकी बार का.
© पुनीत कुमार माथुर, गाज़ियाबाद
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