🌺🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏 🌺



मित्रों आज का श्लोक मैंने लिया है श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय  'सांख्ययोग' से ..


योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।

सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

(अध्याय 2, श्लोक 48)


इस श्लोक का अर्थ: हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा।

मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं। 


सुप्रभात 🌹🙏 


पुनीत कुमार माथुर 

इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद ।

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