जय श्री राधे कृष्णा 🌹🙏 


मित्रों आज मैंने श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय 'कर्मयोग' से दो श्लोक लिए हैं। दो श्लोक इसलिए क्योंकि ये दोनों एक - दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण बता रहे हैं कि इंद्रियों को दिखावे के लिए वश में करना घमण्ड है जबकि जो अपनी इंद्रियों को सच में अपने वश में रख कर कार्य करता है वही उत्तम व्यक्ति है। 


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ 

(अध्याय 3, श्लोक 6)


इस श्लोक का अर्थ है : जो महामूढ मनुष्य कर्मेन्द्रियोंको संयमित करता है, लेकिन मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है ।


यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ 

(अध्याय 3, श्लोक 7)


इस श्लोक का अर्थ है : (भगवान श्री कृष्ण कहते हैं) किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है। 


सुप्रभात ! 


पुनीत कुमार माथुर 

ग़ाज़ियाबाद

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