एक ग़ज़ल ....
खेलते हैं ख़ूब दिल से तोड़ जाने को,
पास आते ही हैं कुछ तो दिल दुखाने को ।
वक़्त पड़ने पर कोई आता नहीं है काम,
दोस्त हैं सारे यहाँ बातें बनाने को ।
रो चुके हैं याद करके हादसों को हम,
काफ़ी कुछ बाक़ी है अब भी मुस्कुराने को ।
मौसमों का ज़ोर भी चलता उन्हीं पर बस,
छत नहीं है पास जिनके सर छुपाने को।
झूठ की अख़बार सारे पैरवी करते,
ये तो छपते थे कभी बस सच बताने को।
जब भी फेंको सोचना एक बार उनका भी,
इक निवाला भी नहीं है जिनके खाने को।
ख़ूब मिलते हैं गले सारे सियासतदां,
लड़ते हैं ये लोग आपस में, दिखाने को।
© पुनीत कुमार माथुर, ग़ाज़ियाबाद
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