🙏जय श्री राधे कृष्णा 🙏 


मित्रों आज के ये दो श्लोक भी श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय 'मोक्षसंन्यासयोग से ही ..


शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥

(अध्याय 18, श्लोक 43)


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥

(अध्याय 18, श्लोक 44)


इस श्लोक का भावार्थ : (भगवान श्री कृष्णा कहते हैं) - शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।


शुभ दिन ! 


पुनीत माथुर  

ग़ाज़ियाबाद।

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