एक ग़ज़ल ......


पुरख़तर रास्तों पे चलने में,

हम लगे हैं जहाँ बदलने में।


मोम लहजे ने काम कर डाला,

संग आता न था पिघलने में।


एक मंज़िल है एक ही रस्ता, 

क्या बुराई है साथ चलने में ।


उम्र का एक दौर ये भी है, 

देर लगती नहीं फिसलने में ।


क्या से क्या होते मायने जाते,

बात से बात के निकलने में।


उम्र सारी तमाम होती गई,

मुश्किलों से बच निकलने में।


कोशिशें बार बार करते रहो,

वक़्त लगता है कुछ बदलने में।


पुरख़तर - ख़तरों से भरे 

संग - पत्थर


© पुनीत कुमार माथुर, ग़ाज़ियाबाद 

Share To:

Post A Comment: