एक ग़ज़ल .....
परेशां दिल इधर रक्खा हुआ है,
सुकूं जानें किधर रक्खा हुआ है।
बहुत ही ख़ूबसूरत मौत होगी,
तेरे ज़ानों पे सर रक्खा हुआ है।
तसव्वुर में तुम्हारा चाँद-सा रुख़,
ग़ज़ब, आठों पहर रक्खा हुआ है।
छुड़ाना हाथ तेरा ठीक है क्या ?
अभी पूरा सफ़र रक्खा हुआ है।
यकीं इस बात पर कैसे करूं मैं,
दुआओं में असर रक्खा हुआ है।
मुहब्बत से हुआ कुछ भी न हासिल,
जहाँ देखो सिफ़र रक्खा हुआ है ।
हमारे नाम तेरा आख़िरी ख़त
जलाना था मगर रक्खा हुआ है।
© पुनीत कुमार माथुर, ग़ाज़ियाबाद
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