🙏जय श्री राधे कृष्णा 🙏
मित्रों आज भी मैं ये दो श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय 'मोक्षसंन्यासयोग से ही प्रस्तुत कर रहा हूँ ..
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्मकुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥
(अध्याय 18, श्लोक 10)
न हि देहभृता शक्यंत्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
(अध्याय 18, श्लोक 11)
इस श्लोक का भावार्थ : (श्री भगवान कहते हैं) - जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है।
शुभ दिवस !
पुनीत माथुर
ग़ाज़ियाबाद।
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