🙏जय श्री राधे कृष्णा 🙏 


मित्रों आज के ये दो श्लोक भी  श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय 'मोक्षसंन्यासयोग से ही ..


यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥

(अध्याय 18, श्लोक 5)


एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥

(अध्याय 18, श्लोक 6)


इस श्लोक का भावार्थ : (श्री भगवान कहते हैं) - यज्ञ, दान और तप रूपी कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, वे तो अवश्य करने चाहिए क्योंकि यज्ञ, दान और तप मनीषियों को भी पवित्र करने वाले हैं। 

इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है। 


आपका दिन मंगलमय हो ! 


पुनीत माथुर  

ग़ाज़ियाबाद।

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