🙏जय श्री राधे कृष्णा 🙏
मित्रों आज श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय सत्रह 'श्रद्धात्रयविभागयोग' के दो अंतिम श्लोक ......
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(अध्याय 17, श्लोक 27)
इस श्लोक का भावार्थ : (भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से बोले) - तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्-ऐसे कहा जाता है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥
(अध्याय 17, श्लोक 28)
इस श्लोक का भावार्थ : (श्री भगवान् बोले) - हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।
आपका दिन शुभ हो !
पुनीत माथुर
ग़ाज़ियाबाद।
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