🙏जय श्री राधे कृष्णा 🙏 


मित्रों आज से मैं श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय सत्रह 'श्रद्धात्रयविभागयोग' का आरंभ कर रहा हूँ, आज के ये दो श्लोक भी इसी अध्याय से ....


अर्जुन उवाच -

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्ययजन्ते श्रद्धयान्विताः ।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥

(अध्याय 17, श्लोक 1)


इस श्लोक का भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी?


श्रीभगवानुवाच -

त्रिविधा भवति श्रद्धादेहिनां सा स्वभावजा ।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥

(अध्याय 17, श्लोक 2)


इस श्लोक का भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले-  मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन।


शुभ रविवार ! 


पुनीत माथुर  

ग़ाज़ियाबाद।

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