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🙏जय श्री राधे कृष्ण🙏 


श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय 'विश्व रूप दर्शन योग' से लिए गए आज के श्लोकों में भगवान द्वारा विश्वरूप के दर्शन की महिमा का वर्णन किया जा रहा है ....


श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌ ।

तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥ 

(अध्याय 11, श्लोक 47)


इस श्लोक का भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। 


न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।

एवं रूपः शक्य अहं नृलोके   द्रष्टुं  त्वदन्येन  कुरुप्रवीर ॥ 

(अध्याय 11, श्लोक 48)


इस श्लोक का भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। 


आपका दिन शुभ हो  !  


पुनीत माथुर  

ग़ाज़ियाबाद।

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