🙏जय श्री राधे कृष्ण🙏 


मित्रों आज के ये श्लोक भी ग्यारहवें अध्याय 'विश्व रूप दर्शन योग' से ही हैं। इन श्लोकों में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण का विराट रूप देखते हुए उसका वर्णन कर रहे हैं ....


नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌ ।

दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ 

(अध्याय 11, श्लोक 24)


इस श्लोक का भावार्थ : (अर्जुन ने कहा) हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगो से युक्त मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मेरा मन भयभीत हो रहा है, मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। 


दंष्ट्राकरालानि च ते  मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।

दिशो न जाने न लभे च  शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥

(अध्याय 11, श्लोक 25)


इस श्लोक का भावार्थ : इस प्रकार दाँतों के कारण विकराल और प्रलयंकारी की अग्नि के समान आपके मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ और न ही सुख पा रहा हूँ, इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। 


शुभ दिन ! 


पुनीत माथुर  

ग़ाज़ियाबाद।

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