🙏राधे राधे 🙏
प्रणाम मित्रों !
विगत कुछ दिनों से मैं श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय 'आत्मसंयम योग' से चुनिंदा श्लोक आपके समक्ष रख रहा था, आज से मैं सातवां अध्याय 'ज्ञान विज्ञान योग' आरंभ कर रहा हूँ।
आज का श्लोक सातवें अध्याय से ही है ....
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(अध्याय 7, श्लोक 4)
इस श्लोक का अर्थ है : (भगवान श्री कृष्णा कहते हैं) - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जानो।
शुभ दिन !
पुनीत माथुर
ग़ाज़ियाबाद
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