रोकती है रास्ता अंधी रिवायत,क्या करूं,
बन गई है बेड़ी जो उसकी हिफ़ाज़त क्या करूं।
हम भी तो वैसे नहीं अब,वो भी पहले सा नहीं,
याद कर बातें पुरानी अब अदावत क्या करूं।
मेरी किस्मत में जो था मुझको दिया ऐ जिंदगी,
ख़ुश हूँ मैं जो भी मिला, तुझसे शिकायत क्या करूं।
थक गया लड़ते हुए ये जंग सच और झूठ की,
वो बहुत हैं,मैं अकेला अब बग़ावत क्या करूं।
बरसों से ख़ाली पड़ी है कोई भी बसता नहीं,
अब किसी के नाम दिल की ये इमारत क्या करूं।
बस्तियां जलती रहें और मैं खड़ा देखूं उन्हें,
इतना भी ज़ालिम नहीं,गन्दी सियासत क्या करूं ।
जब मुझे दिखते नहीं मजलूम की आंखों के अश्क,
मन्दिरों मस्जिद में जा कर फ़िर इबादत क्या करूं।
- पुनीत कृष्णा
Post A Comment: