🙏राधे राधे 🙏

आप सभी को प्रणाम !

मित्रों विगत लगभग दो सप्ताह से मैं श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे  अध्याय 'ज्ञानकर्मसंन्यासयोग' से ही श्लोक व उनके अर्थ यहां लिख रहा हूँ। इसी क्रम में आज का श्लोक भी मैंने चौथे  अध्याय से ही लिया है। 

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
(अध्याय 4, श्लोक 22)

इस श्लोक का अर्थ है : (भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं) जो स्वतः प्राप्त वस्तु से संतुष्ट, द्वंद्वों (हर्ष-शोक आदि) से अतीत,  ईर्ष्या रहित और सफलता- असफलता में समान रहने वाला हो, वह कर्मों को करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।

आप का दिन शुभ हो !

पुनीत कृष्णा
ग़ाज़ियाबाद
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