🙏 राधे राधे 🙏 

मित्रों आज का श्लोक मैंने लिया है श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवे अध्याय 'कर्मसंन्यासयोग' से। 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: |
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ||
(अध्याय 5, श्लोक 7)

इस श्लोक का अर्थ है : जिसका मन अपने वश में है, जिसने अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर लिया है एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है अर्थात जिसका मन साफ़ है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है अर्थात जिसने अपने हृदय में प्रभु श्री कृष्ण को बसा रखा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी (सांसारिक भोगों में) लिप्त नहीं होता। 

सुप्रभात ! !
पुनीत कृष्णा

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