रेत का महल

जब ठान ही ली ज़िद मुस्कुराने की,
वजह क्या फिर बचेगी टूट जाने की.

और क्या अब दर्द के इम्तिहा़ होंगें,
आदत जो पड़ गई है हँसने -हँसाने की.

खुद-ब-खुद भर जायेंगें घाव सारे,
ज़रुरत नहीं अब मलहम लगाने की.

दर्द की बारीकियों से मुलाकात हो गई,
जिद है अब तो उसकी मेहरबानी की.

खुशी मिल रही है बलखाती लहरों से,
आदत जो है रेत का महल बनाने की.

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