गहराती दरारों के साथ,
स्याह पड़ता जाता दर्द
और गुलाबी होती जाती पीड़ा
न दरारें भरती हैं
न जख़्म सूखते है
रिसते रहते है बस कुछ रिश्ते
कभी रिवाज़ों के नाम पर
बढ़ाई जाती रही है कडुआहटें
कभी रस्मों के सर मढ़कर
पिलाया जाता रहा है अपमान
संस्कारो के नाम पर
सिखाया जाता रहा है सहना
मर्यादा की दहलीज़ बताकर
समझाया जाता खामोश रहना
इतनी खाइयां खोदकर
इतनी दीवारें खडी कर
समानता और प्रेम की
सम्मान की रखी जाती उम्मीद
गोया इंसा नही, बुत हो कोई
बुत को भी परस्तिश की
दरकार होने लगती है
नहीं समझ पाते लोग
माना प्रेम समझौता नहीं होता
पर एकाकार होने की
जद्दोजहद में
कौन कितना दफ़न हो
ये कौन तय करे
किसी एक को पेरा जाना
तो तय नहीं होता होगा
प्रेम में बेशक़
और यूँ ही रिसते हुए
मर्ज़ बन जाते है रिश्ते
फिर न दवा काम आती है
न दुआ का असर होता है..
बचता है तो बिन रूह
एक पिंजर जिस्म का ..
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